मध्यप्रदेश

*सरकारी अस्पताल या मरीजों की परीक्षा केंद्र? इलाज के नाम पर लापरवाही, मजबूर परिजन पहुंचे निजी अस्पताल*

*सरकारी अस्पताल या मरीजों की परीक्षा केंद्र? इलाज के नाम पर लापरवाही, मजबूर परिजन पहुंचे निजी अस्पताल*

 

ग्वालियर। सरकार द्वारा करोड़ों रुपये खर्च कर बनाए गए सरकारी अस्पतालों की हकीकत क्या है, यह तब सामने आता है जब कोई आम नागरिक सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं पर भरोसा करता है और अंततः उसे निजी अस्पतालों का रुख करना पड़ता है। भारतीय मजदूर संघ के वरिष्ठ समाजसेवी नरेन्द्र सिंह कुशवाह के परिवार के साथ जो कुछ हुआ, वह ग्वालियर के सरकारी अस्पतालों में स्वास्थ्य सेवाओं की वास्तविक स्थिति को उजागर करता है।

 

*घंटों इंतजार, डॉक्टर नदारद, फिर निजी अस्पताल ही एकमात्र सहारा*

 

12 मार्च को नरेन्द्र सिंह कुशवाह की बहू की डिलीवरी होनी थी। वह बिड़ला नगर जच्चा अस्पताल में सुबह 11 बजे पहुंच गईं, लेकिन उन्हें ढाई बजे तक बैठाए रखा गया। फिर अचानक कह दिया गया कि अस्पताल में 2 बजे के बाद कोई डॉक्टर नहीं रहता और मरीज को जिला अस्पताल मुरार ले जाने की सलाह दे दी गई।

 

जब परिजन जिला अस्पताल पहुंचे तो वहां भी 2 घंटे तक कोई डॉक्टर नहीं आया। प्रशासन से संपर्क करने की कोशिश की गई, लेकिन कोई ठोस मदद नहीं मिली। राजनीतिक हस्तियों से लेकर स्वास्थ्य अधिकारियों तक, सभी को फोन किए गए, लेकिन किसी ने इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया। डॉक्टरों ने मरीज को गंभीर बताकर इलाज में देरी की, जिससे स्थिति और बिगड़ सकती थी।

 

जब सरकारी तंत्र से उम्मीद टूट गई, तो परिजन मरीज को हजीरा स्थित एक निजी अस्पताल ले गए। वहां 15 मिनट में ऑपरेशन कर दिया गया और जच्चा-बच्चा दोनों सुरक्षित बच गए।

 

*प्रशासनिक लापरवाही या जानबूझकर निजी अस्पतालों की ओर धकेलने की साजिश?*

 

यह मामला सिर्फ एक परिवार की परेशानी नहीं है, बल्कि पूरी सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल खोलता है। सरकार भले ही नए अस्पताल और योजनाओं का प्रचार करे, लेकिन हकीकत यह है कि डॉक्टरों की अनुपस्थिति, लापरवाही और मरीजों को निजी अस्पतालों की ओर धकेलने की मानसिकता आज भी बनी हुई है।

 

अगर निजी अस्पताल में 15 मिनट में इलाज संभव था, तो सरकारी अस्पतालों में घंटों इंतजार क्यों? क्या सरकारी डॉक्टरों की प्राथमिकता मरीज नहीं, बल्कि अपनी सुविधाएं हैं? यह सवाल प्रशासन के लिए सोचने योग्य है।

 

यह सिर्फ एक घटना नहीं, बल्कि सिस्टम की सच्चाई है। जब तक सरकार सिर्फ इमारतें बनाने की बजाय स्वास्थ्य सेवाओं की जवाबदेही तय नहीं करती, तब तक मरीजों की जान से इस तरह का खिलवाड़ होता रहेगा।

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